गुर्जर प्रतिहार वंश Gurjar Pratihar Vansh- Rajasthan GK PDF. Gurjar Pratihar ka sampurn itihas. गुर्जर प्रतिहार कोन थे इनकी उत्पत्ति कैसे हुई ? गुर्जर प्रतिहारों ने कहाँ कहाँ पे शाशन किया था ? प्रतिहार वंश की उत्पत्ति का क्या सिद्धांत है ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देंगे इस आर्टिकल में.
गुर्जर प्रतिहार वंश की उत्पत्ति Gurjar Pratiharon Ki Utpatti
राजस्थान के दक्षिण पश्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेश में प्रतिहार वंश की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंश प्रतिहार वंश कहलाया। गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में गुर्जर प्रतिहार कहलाये। बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशियन द्वितीय के एहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का उल्लेख आभिलेखिक रूप से सर्वप्रथम रूप से हुआ है।
प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चन्द्र मजूमदार के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों ने छठी सदी से बारहवीं सदी तक अरब आक्रमणकारियों के लिए बाधक का काम किया और भारत के द्वारपाल(प्रतिहार) की भूमिका निभाई।
नीलकुण्ड, राधनपुर, देवली तथा करडाह शिलालेख में प्रतिहारों को गुर्जर कहा गया है। अरब यात्रियों ने इन्हे ‘जुर्ज’ लिखा है। अलमसूदी गुर्जर प्रतिहार को ‘अल गुजर’ और राजा को बोहरा कहकर पुकारता है जो शायद आदिवराह का विशुद्ध उच्चारण है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग जब भीनमाल आया तो उसने अपने 72 देशों के वर्णन में इसे कू-चे-लो(गुर्जर) बताया तथा उसकी राजधानी का नाम ‘पीलोमोलो/भीलामाल’ यानि भीनमाल बताया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इसी प्रदेश की भिल्लमल नगरी में गुर्जर प्रतिहारों ने अपनी
सत्ता का प्रारम्भ किया। प्रतिहार नरेशों के जोधपुर और घटियाला शिलालेखों से प्रकट होता है कि गुर्जर प्रतिहारों का मूल निवास स्थान
गुर्जरात्र था। एच. सी. रे के अनुसार इनकी सत्ता का प्रारम्भिक केन्द्र माण्डवैपुरा (मण्डौर) था। परन्तु अधिकांश इतिहासकार इनकी सत्ता का प्रारम्भिक केन्द्र अवन्ति अथवा उज्जैन को मानते हैं। इसके अलावा जैन ग्रन्थ हरिवंश और राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष का संजन ताम्रपत्र नैणसी ने गुर्जर प्रतिहारों की 26 शाखाओं का वर्णन किया है.
मण्डौर के प्रतिहार (Mandor ke Pratihar)- Gurjar Pratihar Vansh
गुर्जर-प्रतिहारों की 26 शाखाओं में यह शाखा सबसे प्राचीन और महत्वपूर्ण थी। जोधपुर और घटियाला शिलालेखों के अनुसार
हरिशचन्द्र नामक ब्राह्मण के दो पत्नियां थी। एक ब्राह्मणी और दूसरी क्षत्राणी भद्रा। क्षत्राणी भद्रा के चार पुत्रों भोगभट्ट, कद्दक, रज्जिल और दह ने मिलकर मण्डौर को जीतकर गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना की। रज्जिल तीसरा पुत्र होने पर भी मण्डौर की वंशावली इससे प्रारम्भ होती है।
शीलुक
इस वंश के दसवें शासक शीलुक ने वल्ल देश के शासक भाटी देवराज को हराया। उसकी भाटी वंश की महारानी पद्मिनी से बाउक और दूसरी रानी दुर्लभदेवी से कक्कुक नाम के दो पुत्र हुए।
बाउक
बाउक ने 837 ई. की जोधपुर प्रशस्ति में अपने वंश का वर्णन अंकित कराकर मण्डौर के एक विष्णु मन्दिर में लगवाया था।
कक्कुक
कक्कुक ने दो शिलालेख उत्कीर्ण करवाये जो घटियाला के लेख के नाम से प्रसिद्ध है। उसके द्वारा घटियाला और मण्डौर में जयस्तम्भ भी
स्थापित किये गये थे.
जालौर, उज्जैन और कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार– Gurjar pratihar Vansh
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नागभट्ट प्रथम(730-760 ई.)
Gurjar Pratihar Vansh शासक नागभट्ट प्रथम ने आठवीं शताब्दी में भीनमाल पर अधिकार कर उसे अपनी राजधानी बनाया। बाद में में इन्होंने उज्जैन को अपनीे अधिकार में कर लिया एवं उज्जैन उनकी शक्ति का प्रमुख केन्द्र हो गया। ये बड़े प्रतापी शासक थे इनका दरबार ‘नागावलोक का दरबार’ कहलाता था। जिसमें तत्कालीन समय समय के सभी राजपूत वंश(गुहिल, चौहान, परमार, राठौड़, चंदेल, चालुक्य, कलचुरि) उनके दरबारी सामन्त थे।
इनके समय में सिन्ध की ओर से बिलोचों ने आक्रमण किया और अरबो ने अरब से। नागभट्ट ने इन्हें अपनी सीमा में घुसने नहीं दिया जिससे उनकी ख्याति बहुत बढ़ी। इन्हें ग्वालियर प्रशस्ति में ‘नारायण’ और ‘म्लेच्छों का नाशक’ कहा गया है। म्लेच्छ अरब के थे जो सिन्ध पर अधिकार करने के पश्चात् वहां से भारत के अन्य भागों में अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते थे। नागभट्ट प्रथम के उत्तराधिकारी कुक्कुक एवं देवराज थे, परन्तु इनका शासनकाल महत्वपूर्ण नहीं रहा। नागभट्ट को क्षत्रिय ब्राह्मण कहा गया है। इसलिए इस शाखा को रघुवंशी प्रतिहार भी कहते हैं।
वत्सराज (783- 785 ई.)
देवराज की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र वत्सराज अगले प्रतापी शासक हुए। इन्होंनेन्हों भण्डी वंश को पराजित किया तथा बंगाल के पाल शासक धर्मपाल को भी पराजित किया।
वत्सराज की रानी सुन्दरदेवी से नागभट्ट द्वितीय का जन्म हुआ। जिन्हें भी नागवलोक कहते हैं। इनके समय में उदयोतन सूरी ने ‘कुवलयमाला’ और जैन आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंश पुराण’ की रचना की। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने “कुवलयमाला” की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू शैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन शैली में बना है। औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था। औसिंया (जोधपुर) के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
औसियां को राजस्थान को भुवनेश्वर कहा जाता है। औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
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नागभट्ट द्वितीय (795-833ई.)
नागभट्ट द्वितीय वत्सराज के उत्तराधिकारी थे। इन्होंने 816 ई. म अभिलेख में इन्हें ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ कहा गया
हे। चंद्रप्रभा सूरी के ग्रंथ ‘प्रभावक चरित’ के अनुसार नागभट्ट द्वितीय ने 833 ई. में गंगा में डूबकर आत्महत्या कर ली। नागभट्ट के बाद उनके पुत्र रामभद्र ने 833 ई. में शासन संभाला परन्तु अल्प शासनकाल(3 वर्ष) में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं हुआ।
मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई.)
मिहिरभोज प्रथम इस वंश के महत्वपुर्ण शासक थे। ये रामभद्र के पुत्र थे। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी थे। इनका प्रथम अभिलेख वराह अभिलेख है जिसकी तिथि 893 विक्रम संवत्(836 ई.) है। अरब यात्री ‘सुलेमान’ ने मिहिरभोज के समय भारत की यात्रा की ओर मिहिरभोज को भारत का सबसे शक्तिशाली शासक बताया। जिसने अरबों को रोक दिया। कश्मीरी कवि कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में भी मिहिरभोज के प्रशासन की प्रसंशा की गई है।
मिहिरभोज ने राष्ट्रकूटों को प्राजित करके उज्जैन पर अधिकार कर लिया। इस समय राष्ट्रकूट वंश में कृष्ण द्वितीय का शासन था। ग्वालियर अभिलेख में इनकी उपाधि आदिवराह मिलती है। वहीं दौलतपुर अभिलेख इन्हें प्रभास कहता है। इनके समय प्रचलित चांदी ओर तांबे के सिक्कों पर ‘श्रीमदादिवराह’ अंकित था। स्कन्धपुराण के अनुसार मिहिरभोज ने तीर्थयात्रा करने के लिए राज्य भार अपने पुत्र महेन्द्रपाल को सौंपसौं कर सिंहासन त्याग दिया।
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.)
इनके गुरू व आश्रित कवि राजशेखर थे। राजशेखर ने कर्पूरमंजरी, काव्यमीमांसा, विद्धसालभंज्जिका, बालभारत, बालरामायण, हरविलास और भुवनकोश की रचना की। इन्होंनेन्हों अपने ग्रन्थों में महेन्द्रपाल को रघुकुल चड़ामणि, निर्भय नरेश, निर्भय नरेन्द्र कहा है। इनके दो पुत्र थे भोज द्वितीय और महिपाल प्रथम। भोज द्वितीय ने(910-913 ई.) तक शासन किया।
महिपाल प्रथम (914-943 ई.)
जब तक महिपाल ने शासन संभाला तब तक राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने प्रतिहारों का हराकर कन्नौज को नष्ट कर दिया। राजशेखर महिपाल के दरबार में भी रहे। राजशेखर ने इन्हें ‘आर्यावर्त का महाराजाधिराज’ कहा और ‘रघुकुल मुकुटमणि’ की संज्ञा दी। इनके समय में अरब यात्री ‘अलमसूदी’ ने भारत की यात्रा की।
राज्यपाल
1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण 1039 ई. के आसपास चन्द्रदेव गहड़वाल ने प्रतिहारों से कन्नौज छीनकर इनके अस्तित्व को समाप्त कर दिया।
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